आरक्षण की कहानी देश में तब शुरू हुई थी जब १८८२ में हंटर आयोग बना. उस समय विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण की मांग की थी. बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू था. सन १८९१ में त्रावणकोर के सामंत ने जब रियासत की नौकरियों में स्थानीय योग्य लोगों को दरकिनार कर विदेशियों को नौकरी देने की मनमानी शुरू की तो उनके खिलाफ प्रदर्शन हुए तथा स्थानीय लोगों ने अपने लिए आरक्षण की मांग उठाई. १९०१ में महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण शुरू किया गया. १९०८ में अंग्रेजों द्वारा पहली बार देश के प्रशासन में हिस्सेदारी निभाने वाली जातियों और समुदायों के लिएआरक्षण शुरू किया. १९०९ में भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया. १९१९ में मोंटाग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों को शुरु किया गया जिसमें आरक्षण के कुछ नियम थे.
१९२१ में मद्रास प्रेसीडेंसी ने ब्राह्मणों के लिए १६ प्रतिशत, गैर-ब्राह्मणों के लिए ४४ प्रतिशत, मुसलमानों के लिए १६ प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ ईसाइयों के लिए १६ प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए ८ प्रतिशत आरक्षण दिया. बी आर आंबेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के लिए सन् १९४२ में सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की थी. १९५० में अंबेडकर की कोशिशों से संविधान की धारा ३३० और ३३२ के अंतर्गत यह प्रावधान तय हुआ कि लोकसभा में और राज्यों की विधानसभाओं में इनके लिये कुछ सीटें आरक्षित रखी जायेंगी.
आरक्षण को लेकर धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेद भाव नही किया जायेगा. आजाद भारत के संविधान में यह सुनिश्चित किया गया कि नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान तथा धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेद भाव नहीं बरता जाएगा साथ ही सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गईं. राजशेखरैया ने अपने लेख ‘डॉ. आंबेडकर एण्ड पालिटिकल मोबिलाइजेशन ऍाफ द शेड्यूल कॉस्ट्स’ (१९७९) में कहा है कि डॉ. आंबेडकर दलितों को स्वावलंबी बनाना चाहते थे.
डॉ अम्बेडकर ने स्वयं कहा था कि “दस साल में यह समीक्षा हो कि जिनको आरक्षण दिया जा रहा है क्या उनकी स्थिति में कुछ सुधार हुआ कि नहीं? उन्होंने यह भी स्पष्ट रूप में कहा यदि आरक्षण से यदि किसी वर्ग का विकास हो जाता है तो उसके आगे कि पीढ़ी को इस व्यवस्था का लाभ नही देना चाहिए क्योकि आरक्षण का मतलब बैसाखी नही है जिसके सहारे आजीवन जिंदगी जिया जाये,यह तो मात्र एक आधार है.
आरक्षण के लागू होकर आज तक़रीबन ६५ साल हो गए है फिर डॉ.आंबेडकर के कहने के मुताबिक किसी का भी आरक्षण नहीं हटा. अगर देखा जाये तो जातिगत आरक्षण का सारा लाभ तो वैसे लोग ले लेते हैं जिनके पास सबकुछ है और जिन्हे आरक्षण की ज़रूरत ही नहीं है. पिछड़े वर्गों के हजारों-लाखों व्यक्ति वर्तमान उच्च पदों पर हैं. कुछ अत्यन्त धनवान हैं, कुछ करोड़पति अरबपति हैं,फिर भी वे और उनके बच्चे आरक्षण सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं. ऐसे सम्पन्न लोगों के लिए आरक्षण सुविधाएँ कहाँ तक न्यायोचित है? यह सवाल आज उन लोगों के सामने है जिनकी बुद्धिमत्ता तेज होने के बावजूद केवल आरक्षण और आर्थिक स्थिति अच्छी ना होने के कारण उन्हें शिक्षा और सरकारी नौकरियों से हाथ धोना पद रहा है.
अगर भारत को विकसित करना है तो आरक्षण नाम के राक्षक को जड़ उखाड़ना पड़ेगा. आप क्या कहना है…?
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